मीडिया और अकादमिकों के बीच खाद्य पदार्थों के साथ अमेरिकियों के निष्क्रिय रिश्तों की लगातार आलोचना होती है या उसका मजाक बनता है. लेकिन जो बात कभी विश्लेषण का विषय नहीं बनती है, वो है – इस निष्क्रियता की मूल वजह. मार्क्सवाद का मानना है भौतिक परिस्थितियां ही चेतना को जन्म तय देती हैं. हमारा शारीरिक एवं सामजिक वातावरण हमारे पास उपलब्ध सभी विकल्पों को सीमित करके बड़े पैमाने पर हमारी रुचियों को प्रभावित करता है.
Translated By: जया सजल
ज्यादातर अमेरिकियों के लिए , भोजन के फैसले उनके बजट , वक़्त , उसकी उपलब्धता , मार्केटिंग और उनके दोस्तों और समुदाय के चंद तौर - तरीकों पर निर्भर करते हैं . ये सामजिक और सांस्कृतिक तौर - तरीके भौतिक परिस्थितियों और संभावनाओं से उसी तरह जुड़े हुए हैं जिस तरह व्यक्तिगत अभिरुचियों से . अगर भोजन सस्ता और सीधा - सादा हो , वसा , नमक एवं कार्बोहाइड्रेट की हमारी जैविक जरूरतों को पूरा करने के लिए वैज्ञानिक विधि से तैयार किया गया हो – तो भी क्या सचमुच सबकी उस तक पहुँच होगी , सभी उसे वहन कर सकेंगे , सभी को मनपसंद विकल्प चुनने का अवसर मिल सकेगा ? लेकिन यह दुष्प्रक्रिया इससे भी आगे जाती है .
युनाईटेड स्टेट्स इस धरती का सबसे अमीर देश है , और इसके बावजूद , १५ . ९ मिलियन बच्चों समेत , 49 मिलियन अमेरिकी “खाद्य असुरक्षा” के भीतर माने जाते हैं . यूएस डिपार्टमेंट ऑफ़ एग्रीकल्चर : “ खाद्य असुरक्षा” को ‘उचित एवं सुरक्षित खानों की सीमित अथवा अनिश्चित उपलब्धता’ या फ़िर ‘सामजिक रूप से स्वीकार्य तौर - तरीकों के अनुसार स्वीकृत किये जाने वाले खाद्य पदार्थों को प्राप्त कर सकने की “अनिश्चित क्षमता”’ के रूप में परिभाषित करता है . “ खाद्य असुरक्षा” के शिकार 4.9 मिलियन अमेरिकी बुजुर्गों को दवाइयों , ऊष्मा और भोजन के बीच प्राथमिकता तय करनी पड़ती है – और कईयों को अपनी जरूरतें बिल्लियों के लिए बने खाने से पूरी करनी पड़तीं हैं . खाना बनाना सिखाने की पत्रिकाएँ , किताबें , टेलिविज़न कार्यक्रम , और “ food porn” Instagram feeds आजकल पहले से कहीं ज्यादा लोकप्रिय है , मगर इसके बावजूद , वक्त , पैसे , खाना बनाने के सलीकों और ज्ञान के अभाव में 50 मिलियन अमेरिकी अपने शरीर की कैलोरी की जरूरतों को पूरा करने के लिए अस्वास्थ्यकर फास्ट फ़ूड पर निर्भर रहते हैं . जिसकी वजह से उनमें मोटापे , दिल की बीमारियों , टाइप -2 डायबटीज़ , अर्थराइटिस , सांस की बीमारियाँ , लीवर की खराबी , दिमागी झटकों आदि - आदि के स्तरों में बड़े पैमाने पर बढ़त हो रही है .
रासायनिक पदार्थों और कीटनाशकों का अव्यवस्थित इस्तेमाल खाद्य सप्लाई और वातावरण को जहरीला बना रहा है . यूएस में इस्तेमाल किए जाने वाले 80 फ़ीसदी एंटीबायोटिक्स खेतों में उपयोग किए जाते हैं , जो एंटीबायोटिक - प्रतिरोधक “सुपरबग्स” के खतरे को बढ़ा देते हैं . . इन सबके बावजूद , “ पारंपरिक” खाद्य पदार्थों की पैदावार रासायनिक एवं एंटीबायोटिक मुक्त “कार्बनिक” खाद्य पदार्थों की तुलना में महज़ 20 से 25% ही अधिक है .
पूंजीपतियों की रूचि बाजर में बेचे जा सकने वाले मालों का उत्पादन करने में है – खाद्य पदार्थों में नहीं . इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता कि किस तरह के खाद्य पदार्थों का उत्पादन हो रहा है , उनका मकसद केवल अपना अधिकतम मुनाफा कमाना है . खेतों से लेकर खाने की मेज तक की श्रृंखला को बेतरतीब करने के पीछे का कारण खाद्य पदार्थों के उत्पादन का पैमाना नहीं है बल्कि मुनाफ़े को बढ़ाने की हवस है .
सवाल यह नहीं है कि कितना उत्पादन हो सकता है , बल्कि असल बात यह है कि पहले से उत्पादित खाद्य पदार्थों का कितनी बेहतरी से इस्तेमाल किया जाता है . एक आकलन के अनुसार , यूएस में 40% खाद्य पदार्थ वेयरहाउसों , रेस्त्राओं , ग्रोसरी स्टोरों , तथा घर के फ्रिजों में बर्बाद हो जाते हैं , सड़ जाते हैं , या फ़िर फेंक दिए जाते हैं . इसके अलावा , यूएस में उगाए जाने वाले कॉर्न ( मक्के ) का इस्तेमाल वायु - शक्ति , सौर - ऊर्जा अथवा प्लाज्मा जैसे नवीनीकरण किए जा सकने वाले ऊर्जा के असीम संसाधनों को विकसित करने की बजाए , एथेनॉल नामक ईंधन के लिए होता है . एथेनॉल को सार्वजनिक वितरण के नाम पर जरिए बड़े कृषि कॉर्पोरेशनों को दिया जाता है जो सरकार के साथ मिलकर बड़ी चांदी काटते हैं .
वर्तमान समय में मानव - जाति इतने पैमाने पर पर्याप्त अन्न का उत्पादन कर लेती है कि वह 10 मिलियन लोगों का पेट भर सके , लेकिन इसके बावजूद , युनाईटेड नेशंस फ़ूड एंड एग्रीकल्चर का आकलन है कि विश्व के 7.1 बिलियन लोगों में से तकरीबन 870 मिलियन लोग भयानक कुपोषण के शिकार हैं . गरीब देशों के 100 मिलियन बच्चे कुपोषित हैं ; चार में से एक बच्चा अविकसित है ; और 3.1 मिलियन बच्चे हर साल कुपोषण की वजह मर जाते हैं . विकासशील देशों में भूखे पेट स्कूल जाने वाले 66 मिलियन बच्चों के भोजन पर आने वाला खर्च महज़ $3.2 बिलियन पड़ेगा – जोकि “महान जन - हितैषी” और दुनिया के सबसे अमीर व्यक्ति बिल गेट्स की कुल दौलत का महज १ / २४वां हिस्सा है . पूँजीवाद के बीमार तर्क की वजह से , चंद अघाए हुए लोगों के विश्व में जारी यह भयानक बर्बरता , हर साल मरने वाले कई मिलियन लोगों के लिए एक खामोश हॉलोकास्ट ( यातना शिविर ) के समान है .
तकरीबन 750 सालों पहले , नवपाषाण कृषि क्रांति से मानव इतिहास में निर्णायक मोड़ आया था . पहली बार ऐसा हुआ कि बड़ी मात्रा में खाली बैठी जनसँख्या के लिए पर्याप्त खाद्य पदार्थ का उत्पादन किया जा सकता था और इससे अन्य लोगों को किसी न किसी क्षेत्र में विशेषज्ञता हासिल करने के लिए मुक्त करके , अंततः वर्गों तथा राज्य को आगे बढ़ाया जा सकता था . मगर सामजिक संस्थाओं एवं उत्पादकता में हुए इस विशालतम ऐतिहासिक विकास के बावजूद , करोड़ों लोगों के लिए कृषि मौसम , कीटों , और बीमारियों का शिकार बनी रही . यह बहुत पुरानी बात नहीं है , जब आदमी केवल इसलिए भूख से मर जाते थे क्योंकि या तो वे पर्याप्त अन्न नहीं उगा पाते थे या फिर उनकी फसल नष्ट हो जाती थी . आज , किसानों को वास्तव में खाद्य पदार्थों को नष्ट करने अथवा उन्हें प्राथमिकता में न उगाने के लिए पैसे दिए जाते हैं . आनाज की कीमतों को कृत्रिम तौर पर महंगा करने के लिए मिलियनों टन अनाज वेयरहाउसों में जमा कर दिया जाता है . आज , भुखमरी पर्याप्त खाद्य पदार्थ उगा पाने की अक्षमता की वजह से नहीं बल्कि संरचनात्मक एवं राजनैतिक परिस्थितियों का परिणाम है .
ऐसे समय में जब तकनीकि क्षेत्र में हुआ विकास दुनिया की कामगार जनसँख्या के एक छोटे हिस्से को इस काबिल बना सकता है कि वह पूरी धरती को कई - कई बार लगातार भोजन करा सकती है , 1.5 बिलियन लोग अपनी क्षमता को निम्न , अनुपजाऊ जमीन के टुकड़ों पर बर्बाद करते हैं – और फिर भी उनमें से कई भूखे ही रह जाते हैं . दुनिया के कई हिस्सों में खाने को लेकर होने वाले दंगे अभी भी आम बात हैं – इसलिए नहीं कि खाद्य पदार्थों की कमी है , बल्कि इसलिए क्योंकि सैकड़ों मिलयन लोग सिर्फ उन्हें खरीद सकने के काबिल नहीं हैं . इस स्थिति को गलत साबित करने के अवसरों के मिलने के दशकों बाद भी ; फैसला स्पष्ट है : पूँजीवाद इस धरती के सभी लोगों का पेट भरने में नाकाम है . विसंगति यह है कि इसका मानवता की उत्पादक क्षमता से कोई लेना - देना नहीं है , बल्कि यह हमारी ही बनाई हुई संरचनाओं की देन है .
पोषण और कृषि विज्ञान में हुए विकास , हमें सभी के लिए पर्याप्त , स्वास्थ्परक , सुरक्षित एवं स्वादिष्ट भोजन उपलब्ध कराने का अवसर मुहैया करा सकते हैं . ‘ कृषि में विविधता लाकर कीटों , बीमारियों तथा मौसम परिवर्तन से सुरक्षित भोजन की गारंटी देकर’ तथा ‘भोजन को रुचिकर बनाकर’ , दोनों ही मायनों में , मानवता पर्याप्त मात्रा में विविध प्रकार के खाद्य पदार्थों का उत्पादन कर सकती है . वर्तमान अवसंरचना वहनीय , स्वादिष्ट तथा रुचिकर भोजन देने वाले सार्वजनिक रेस्तराओं का विशाल नेटवर्क स्थापित कर सकती है . घर में खाना पकाने और खाने की प्रक्रिया को आज आरामदायक सामजिक गतिविधियों में बदला जा सकता है , न की आवश्यक अरुचिकर काम बनाकर , जैसा की यह आज कई बिलियन लोगों के लिए है . संक्षेप में , वर्तमान दुनिया के भोजन के तौर तरीकों को बदल डालने वाला ज्ञान , तकनीक और क्षमता , सभी चीजें आज मौजूद है . जो चीज़ मौजूद नहीं है , वह है ऐसी सामाजिक संरचना जिसमें खाद्य उत्पादन , वितरण , तैयारी , और उपभोग के प्रति तर्कसंगत तथा संतुलित रवैया हो .
कई लोग खाद्य पदार्थों और उसके साथ करीब से जुड़ी पर्यावरण की समस्या को सुलझाने के लिए कुछ करना चाहते हैं . लेकिन वस्तुतगत परिस्थिति यह है कि बदलाव के सभी मौजूदा प्रस्ताव वर्तमान व्यवस्था की मरम्मत करने या फ़िर अमीर और ताकतवर लोगों की भलमनसाहत एवं तर्कों को आकर्षित करने तक सीमित हैं . यह दिवास्वप्नवाद है . माल उत्पादन तथा दौलत द्वारा चलने वाली और उसके द्वारा परिभाषित इस तरह की व्यवस्था में , पूंजीपतियों के लिए जो चीज़ मायने रखती है वह खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता अथवा मानव स्वास्थ्य नहीं है , बल्कि उनका अधिकाधिक मुनाफ़ा है . क्षमता तथा वास्तविकता के बीच मौजूद यह बेमेल स्थिति निजी व्यक्तित्वों को उनकी “व्यक्तिगत रुचियों” के लिए दोष देने अथवा यथास्थिति के इस या उस आयाम को बदलने से हल नहीं होने वाली है . मानव जीवन के लिए सबसे जरूरी तत्वों में से एक में फैली यह पूरी विकृति केवल और केवल स्वयं पूँजीवाद की अक्रिय व्यवस्था का समूल नाश करके ही ठीक की जा सकती है .